नंगे पाँव मत चला करो आसमान में
कहीँ तारे ना चुभ जाएँ पाँव में
Wednesday, October 17, 2007
Friday, October 12, 2007
मिट्टी के दीये
कल शाम एक मित्र की डायरी में लिखे कुछ शब्दों को पढ़कर कि धर्म वैयक्तिक होता है, ना इससे कम ना इससे ज्यादा, एक कहानी याद आ गयी। कहानी शायद काफी पुरानी है - एक समुद्र का किनारा इस बात के लिए प्रसिद्ध था कि वहाँ बैठने वालो को समुद्र के अन्दर से घंटियों की आवाज सुनाई पड़ती है। शायद किसी समय में कोई भव्य मंदिर रहा हो जो समय के साथ विलीन हो गया हो और लहरों के टकराने से उस मंदिर की घंटियाँ बजती हो। एक दीवाना अपनी मौज में रोज उन घंटियों को सुनने आता था। लेकीन सिवाय लहरों की गर्जन के उसे कुछ सुनाई नही पड़ता था। फिर भी उसने संकल्प ले रखा था की उन घंटियों की आवाज सुनने का। एक दिन अचानक वो दीवाना जोर जोर से चीखने लगा की सुन ली मैंने घंटियों की आवाज। लोगो ने जब पूछा तो उसने कहा कि ये आवाजें समुद्र से नही मेरे अंतस से आती हैं, मैंने सुना है उन्हें । लोगो ने समझा कि बेचारा पागल हो गया लेकीन वो तो आल्हाद से भरा हुआ नाचने लगा। मैंने सुना है की आज भी वो यही बात कहता है।
आज नवरात्रि का पहला दिन है। नौ दिनों तक सारे देश में देवी की पूजा होगी।
मार्क्स का ये कथन कि धर्म अफीम का नशा है, आंशिक रुप से सत्य है। नौ दिनों तक लोग उपवास करेंगे ताकि देवी प्रस्सन होकर उन्हें मुँह माँगा वर दे। अधिकांश ने धन माँगा होगा। इस देश से ज्यादा भौतिक देश दुनिया में शायद ही कोई दूसरा हो। हम तो सीधे - सीधे लक्ष्मी को ही पूजते हैं।
मैं कभी कभी सोचता हूँ कि यदि हम अमर हो जाये तो क्या धर्म बचेगा। रसेल की धर्म का मूल आधार भय है। मेरे देखे से ये बात भी आंशिक रुप से ही सही है। संगठित धर्म का मूल आधार तो भय ही है। वैयक्तिक का प्रेम। इन दिनों धार्मिक चैनलों की बाढ़ आयी हुई है। धर्म गुरुओं को २४ घंटे ब्रह्म चर्चा में लीं देखा जा सकता है। सब इश्वर को खोजने का रास्ता बताते हैं। इस बात पर एक और कहानी याद आ गयी - जेन फकीर रिन्झाई के पास आ कर एक व्यक्ति ने पूछा की इश्वर को कहॉ खोजू। रिन्झाई भी अपने में एक विरला था। पास अपने डंडा रखता और मूर्खों के सर पर चला देता। लेकीन ख्याति उसकी बहुत थी। शायद इसी के चलते ये व्यक्ति भी रिन्झाई के पास आया था। उसका प्रश्न सुनकर रिन्झाई ने अपना डंडा उसके सर पे दे मारा और कहा -'जहाँ गुमा कर आया है वहीँ जा कर खोज'।
ईश्वर को खोजने से पहले उसे गुमाना भी तो जरुरी है।
कुछ दिनों पहले मेरे पुराने परिचित एक बालक से मिलना हुआ। उनकी उम्र कोई साठ वर्ष है लेकीन हैं वो बच्चे ही । उन्हें ब्रह्मचर्चा का बड़ा शौक है। उनकी हवाई बातें सुनने के लालच में मैं उनके घर आया जाया करता था। मिलते ही उन्होने कहा की कल भगवान् शिव मेरे सपनो में आया थे और कहा कि तुम्हे सात दिनों के अन्दर ब्रह्म ज्ञान हो जाएगा। मैंने उन्हें बधाई दीं, और मैं दे भी क्या सकता था।
आज नवरात्रि का पहला दिन है। नौ दिनों तक सारे देश में देवी की पूजा होगी।
मार्क्स का ये कथन कि धर्म अफीम का नशा है, आंशिक रुप से सत्य है। नौ दिनों तक लोग उपवास करेंगे ताकि देवी प्रस्सन होकर उन्हें मुँह माँगा वर दे। अधिकांश ने धन माँगा होगा। इस देश से ज्यादा भौतिक देश दुनिया में शायद ही कोई दूसरा हो। हम तो सीधे - सीधे लक्ष्मी को ही पूजते हैं।
मैं कभी कभी सोचता हूँ कि यदि हम अमर हो जाये तो क्या धर्म बचेगा। रसेल की धर्म का मूल आधार भय है। मेरे देखे से ये बात भी आंशिक रुप से ही सही है। संगठित धर्म का मूल आधार तो भय ही है। वैयक्तिक का प्रेम। इन दिनों धार्मिक चैनलों की बाढ़ आयी हुई है। धर्म गुरुओं को २४ घंटे ब्रह्म चर्चा में लीं देखा जा सकता है। सब इश्वर को खोजने का रास्ता बताते हैं। इस बात पर एक और कहानी याद आ गयी - जेन फकीर रिन्झाई के पास आ कर एक व्यक्ति ने पूछा की इश्वर को कहॉ खोजू। रिन्झाई भी अपने में एक विरला था। पास अपने डंडा रखता और मूर्खों के सर पर चला देता। लेकीन ख्याति उसकी बहुत थी। शायद इसी के चलते ये व्यक्ति भी रिन्झाई के पास आया था। उसका प्रश्न सुनकर रिन्झाई ने अपना डंडा उसके सर पे दे मारा और कहा -'जहाँ गुमा कर आया है वहीँ जा कर खोज'।
ईश्वर को खोजने से पहले उसे गुमाना भी तो जरुरी है।
कुछ दिनों पहले मेरे पुराने परिचित एक बालक से मिलना हुआ। उनकी उम्र कोई साठ वर्ष है लेकीन हैं वो बच्चे ही । उन्हें ब्रह्मचर्चा का बड़ा शौक है। उनकी हवाई बातें सुनने के लालच में मैं उनके घर आया जाया करता था। मिलते ही उन्होने कहा की कल भगवान् शिव मेरे सपनो में आया थे और कहा कि तुम्हे सात दिनों के अन्दर ब्रह्म ज्ञान हो जाएगा। मैंने उन्हें बधाई दीं, और मैं दे भी क्या सकता था।
Monday, October 01, 2007
Running short of friends in the real world, so in the virtual one I logged on to this another social networking web-site Facebook. Unlike its predecessor Orkut, atleast this one isn't crowded with phony characters.
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